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महिला फाइटर्स जो उतरती हैं रिंग में जोश से 

पंच, पावर और पैशन 

यशा माथुर 

वे जब प्रवेश करती हैं स्टील की बंद केज में तो हुंकार भरती हुई अपनी पावर का प्रदर्शन करती हैं। जब लड़ती हैं अपने विरोधी से तो पछाड़ देने को आतुर रहती हैं। इनकी फाइटिंग स्किल्स देख कर हैरानी होती है। यूं लगता है जैसे अटैक इनका उसूल है और पंच हथियार। न चोट लगने का डर है और न ही हारने का। बस जज्बा है तो जीत का परचम लहराने का। नियमों में बंधना पसंद नहीं, इसलिए फ्री फाइट में मजा आता है इन्हें। ये हैं भारत की वे मिक्स्ड मार्शल आर्ट्स महिला फाइटर्स, जिन्होंने कुछ अलग करने की चाहत में फाइट को बना लिया है अपना पहला प्यार ...


आशा रोका ने मात्र  52 सेकंड में अपनी प्रतिद्वंद्वी को पछाड़ दिया। हरियाणा की सुशीला दहिया, मेरठ की कीर्ती राना और दिल्ली की मोनिका शर्मा भी फाइट में जीत के लिए उत्साहित नजर आ रही थीं। इन जैसी महिला फाइटर्स ने फाइट को अपना प्रोफेशन बनाया है। बंद जाली में महिलाओं की एमएमए फाइट देखने लायक थी। इनकी संख्या भारत में बहुत तेजी से बढ़ रही है। सुपर फाइट लीग जैसे मुकाबलों ने इन्हें कमर्शियल फाइटर बनने का प्लेटफॉर्म भी दिया है।

मेरे कोच मोहम्मद अली सर
फाइटर तुलसी हेलेन लेडी मोहम्मद अली ऑफ इंडिया कहलाती हैं क्योंंकि उनका पंचिंग स्टाइल मोहम्मद अली से मैच करता है। ऐसा हो भी क्यों नहीं? आखिर तुलसी ने मोहम्मद अली की फाइट देख कर ही यह खेल सीखा है। 28 साल की तुलसी चेन्नई से हैं। रिंग में मैरीकॉम को भी मात दे चुकी हैं। कहती हैं, 'मैंने मोहम्मद अली के वीडियो देख-देख कर बॉक्सिंग सीखी। उनसे इंस्पायर हुई। मेरे कोच मोहम्मद अली सर हैं। मैं उनकी सीडीज देखती थी। प्रैक्टिस में भी मेरे मूव अलग होते तो एक दिन कोच ने पूछा कि तुम इतना अलग कैसे कर लेती हो। मैंने बताया कि मोहम्मद अली सर को देख कर सीखी हूं।' तुलसी की बहन बॉक्सर थीं। एक बार बहन फाइट हार रही थीं तो तुलसी को गुस्सा आ गया और स्टेज पर चढ़ कर लडऩे लगीं। तब कोच ने कहा कि पहले बॉक्सिंग सीखो तब तुम्हें मुश्किलें पता चलेंगी। वहीं से फाइट उनके जीवन में आ गई। और 2002 में पहला मेडल जीत लिया। 
मुझे प्यार है फाइट से
सुशीला दहिया हिसार जिले के गांव से फाइट करने बाहर निकली एकमात्र लड़की हैं। उस गांव से कोई लड़का भी फाइट में नहीं है। उनका पढ़ाई में मन नहीं लगा तो जूडो सीखना शुरू किया। कहती हैं, 'जूडो और एथलेटिक्स में मन नहीं लगा तो वुशु शुरू किया और इसमें नेशनल खेला। लेकिन जब एमएमए फाइट के लिए गोवा गई और वहां फाइट्स जीती तो मजा आ गया। सुपर फाइट लीग में मेरी दो फाइट हुईं, दोनों में मैंने जीत हासिल की। अब तो प्यार हो गया फाइट से। इसके सिवाय कुछ दिखाई नहीं देता।' सुशीला को श्रावी जाखड़ के नाम से भी जानते हैं। उन्हें गांव से बाहर निकल कर अपने सपने पूरे करने थे। ऑल इंडिया राजीव गांधी कप प्रतियोगिता में दिल्ली आईं और गोल्ड मिला तो दिल्ली में ही रह गई और यहीं प्रैक्टिस करने लगी। हाल में ही शादी की है लेकिन पति रोहित काफी सपोर्ट करते हैं। सुशीला कहती हैं कि लड़कियों को सेल्फ डिफेंस आना बहुत जरूरी है। 
यही रास्ता, यही मंजिल
कुछ अलग हटकर करने की चाहत मेरठ की मोनिका शर्मा को इस गेम में लेकर आ गई। मेरठ में उन्हें सीखने को कम मिला। फाइट के लिए पहले पापा भी राजी नहीं थे लेकिन जिद से ताइक्वांडो शुरू किया। नेशनल खेला। उसके बाद मुएथाई किया। फिर बॉक्सिंग, और अब एमएमए में हैं। मात्र 24 साल की उम्र है अभी मोनिका की और फाइटिंग में ही करियर बनाना है उन्हें। इसी प्रकार दिल्ली के बवाना की कीर्ति राणा भी फाइट में ही आगे जाने के लिए प्रतिबद्ध हैं। 55 किलो की श्रेणी में खेलने वाली कीर्ति कहती हैं, 'मेरे पैरेंट्स ने सोचा था कि लड़कियों को सेल्फ डिफेंस जरूर आना चाहिए। उन्होंने शुरुआत में मुझे घर पर ही कराटे की ट्रेनिंग दिलवाई। लेकिन पिछले पांच साल से बाहर ट्रेनिंग कर रही हूं। ताइक्वांडो, कराटे बॉक्सिंग, वुशु सब गेम खेले हैं। चार साल से एमएमए कर रही हूं। एक बार मम्मी ने टूर्नामेंट खेलने के लिए बोला। मेरा मेडल आया तो मुझे लगा कि मुझे यही करना है।' कीर्ति और मोनिका के लिए फाइट ही आगे जाने का रास्ता है और मंजिल भी।
नाम, काम और सेल्फ डिफेंस
लड़कियां अगर फाइट को अपना प्रोफेशन बनाती हैं तो उन्हें सेल्फ डिफेंस तो आएगा ही, नाम, काम और पैसा भी कम नहीं मिलेगा। अब भारत में भी प्रोफेशनल फाइट का जमाना आ रहा है। सुपर फाइट लीग जैसे प्लेटफॉर्म फाइटर्स को मौका दे रहे हैं। इन्हें अनुभव भी मिल रहा है और एक्सपोजर भी। दमदार फाइटर आशा रोका कहती हैं, 'लड़कियों को इस खेल में आना चाहिए। इसमें सेल्फ डिफेंस कर सकते हैं और नाम भी कमा सकते हैं।' 

दम निकले फाइट रिंग में


जिस तरह से एक सैनिक चाहता है कि उसे सीमा पर शहादत मिले, वैसे ही मैं चाहती हूं कि फाइट रिंग में ही मेरा दम निकले। जब मैं 12 साल की थी तभी मैंने बॉक्सिंग शुरू कर दी थी। मैरीकॉम को भी मुकाबले में हराया है। मेरे जीवन पर 'लाइट फ्लाई, फ्लाई हाई', डॉक्यूमेंट्री बनी है। 'साला खड़ूस' फिल्म भी प्रेरित है मुझसे। मुझे फैमिली का कोई सपोर्ट नहीं मिला। 16 साल से मैं अलग रही हूं। मैंने बहुत मुश्किलें झेलीं। एक साल ऑटो भी चलाया। पढ़ाई कर के शादी करने वाली जिंदगी मुझे पसंद नहीं थी। सबसे अलग करना चाहती थी। मेरा एप्टीट्यूड वैसा नहीं है। मुझे अपनी जिंदगी जीनी थी। एक विवाद के चलते छह साल का ब्रेक भी आया मेरे करियर में। जब एमएमआई फाइट का पता चला तो मैंने इसे ज्वाइन किया। 
तुलसी हेलेन
52 किलो भार  वर्ग



43 सेकंड में हरा दिया

जब रिंग में होती हूं तो सोचती हूं कि मुझे अपने प्रतिद्वंद्वी को हराना ही है, चाहे मैं कमजोर ही क्यों न रहूं। सुपर फाइट लीग में मेरी पहली फाइट चैंपियन डेजी सिंह के साथ थी लेकिन मैंने उसे जीत लिया। वे मेरी सीनियर हैं। लेकिन मुझे हारना नहीं था। एक विदेशी फाइटर को तो मैंने 43 सेकंड में हरा दिया। प्रोफेशनल फाइटर का करियर अच्छा है। भारत के बाहर से भी फाइट करने के ऑफर आ रहे हैं। व्यावसायिक विज्ञापनों के बारे में भी बात चल रही है। मुझे पढऩा पसंद नहीं था। मैंने खेत में ही घर बना लिया। वहीं ट्रैक्टर चलाती, पानी देती, गेंहूं उगाती। शुरू से ही अकेली रहने लगी। मुझे कुछ नहीं आता था लेकिन पावर बहुत थी। बस लगता था कि कुछ करना है। जब लड़के छेड़ते तो मैं उन्हें पीट देती। देसी खाना खाया था, जान बहुत थी। कमी नहीं थी किसी चीज की। अब तो डाइट प्रोटीन बेस्ड है। 
सुशीला दहिया
फाइटर 57 किलो वर्ग 


 
नो रूल्स, नो प्वाइंट
मुझे नो रूल्स वाली यह फ्री फाइट अच्छी लगती है। पहले प्वाइंट गेम ही खेले लेकिन एमएमए फाइट में नंबरों की दरकार नहीं है। लातूर में किक बॉक्सिंग और रेसलिंग की प्रैक्टिस चल रही है। मैं फाइट में अपनी बेस्ट परफॉर्मेंस देना चाहती हूं। मेरी मम्मी का सपना है यह। परिवार के लोग स्पोट्र्स में है तो इस खेल में आने में कोई दिक्कत नहीं आई। दूर के रिश्तेदार जरूर कहते कि फाइट में लड़कियों का जाना अच्छा नहीं है। लेकिन मम्मी ने किसी की नहीं सुनी। बचपन से ही गोल्ड मेडल जीते मैंने। ताइक्वांडो में भी काफी मेडल जीते हैं। पढ़ाई से ज्यादा गेम में पैशन रहा।  
हीना अली शेख 
फ्लाईवेट 56


घर छोड़ा, ट्रायल नहीं



पहले मैं बॉक्सिंग करती थी। फाइट में आने के लिए पैरेंट्स मना करते थे। सोचते थे मुझे चोट लग जाएगी। जब एमएमआई के ट्रायल्स चल रहे थे तो मैं घर छोड़ कर आ गई और ट्रायल दिए। मम्मी नाराज हुईं, बात करना छोड़ दिया। मुझे यह गेम अच्छा लगता है इसलिए ही मैं इस गेम में आई। आस-पास वाले भी मना करते। मम्मी को कहते कि लड़की क्या कर रही है। लड़ाई कर के आई थी घर से। मैंने 42 सेकंड में अपनी प्रतिद्वंद्वी को पछाड़ा है। नेपाल की हूं लेकिन भोपाल में रहती हूं।
आशा रोका 
56 किलो भार वर्ग


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