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बिजी आदमी के पास बहुत टाइम होता है - अनुपम खेर 

यशा माथुर 

जिस तरह 'पैर की मोच', 'छोटी सोच' हमें आगे नहीं बढऩे देती। 'टूटी कलम7, 'दूसरों से जलन' स्वयं का 'भाग्य' नहीं लिखने देती।' 'ज्ञान खजाना है, लेकिन मेहनत उस तक पहुंचने की चाबी।' 'अगर आपने हवा में महल बना रखा है तो चिंता मत कीजिए, महल वहीं है जहां उसे होना चाहिए। अब उसके नीचे नींव खड़ी कीजिए ।' इस तरह के ट्वीट करके अपनी जिंदगी की फिलॉसफी को साझा करने वाले बॉलीवुड एक्टर अनुपम खेर को भला कौन नहीं जानता। 'सारांश' से अपनी फिल्मी पारी का आगाज करने वाले अनुपम 30 से भी ज्यादा सालों से बॉलीवुड में अपनी पहचान कायम रखे हुए हैं। उन्हें लगता है कि अगर आपने अपने भीतर की ताकत को पहचान लिया है तो आप कुछ भी कर सकते हैं। नाकामयाबी से सीख लेने की सलाह देते अनुपम आज भी फिल्म, नाटक, टीवी और लेखन में व्यस्त हैं। कहते हैं कि कुछ कर गुजरने की जो भूख थी मुझमें, उसे मैंने डाल दिया था 'सारांश' के किरदार में ...



शुरुआती दौर में आप काफी नाकामयाब रहे, आपने अपनी असफलताओं को किस तरह से लिया?

मैं असफलता को ज्यादा प्राथमिकता देता हूं। मैंने अपनी जिंदगी में नाकामयाबी से ज्यादा सीखा है, कामयाबी से कम। मेरा खुद का मानना है कि सक्सेस वन डाइमेंशियल है। बोरिंग है। अगर नाकामयाबी को इंसान सही तरीके से ले तो वह दो दिशाओं में आगे बढ़ता है। एक तो वह अपने काम में इंप्रूव करता है और दूसरे, इंसान के तौर पर भी बेहतर बनता है। लेकिन जैसे-जैसे हमारी सोसायटी मॉडर्न हुई है हमने असफलता को एक 'टैबू' बना दिया है। हमारे जेहन में लोगों ने डर डाल दिया है नाकामयाबी का। लोग आपकी खामियों से आपको डराते हैं। देखा जाए तो ऐसा कोई व्यक्ति नहींं है जिसने असफलताओं का सामना नहीं किया हो। जितने भी महान लोग हुए हैं वे हर कदम सफल नहीं रहे हैं, उन्होंने नाकामयाबी को अपनी ताकत बनाया। वे हारे नहीं, बल्कि और अधिक ऊर्जा से अपने मिशन पर आगे बढ़े। आप गांधीजी को ले लीजिए, चैपलिन, बिल गेट्स की बात कीजिए या फिर धीरुभाई अंबानी की जिंदगी पर नजर डालिए। इन सब ने असफलताएं देखी हैं। जिन वैज्ञानिकों ने आविष्कार किए हैं या जिन लेखकों ने नॉवेल लिखे हैं उन्होंने भी तो जिंदगी में संघर्ष किए हैं।

आपकी जिन्दगी की फिलॉसफी क्या है?

मेरी जिन्दगी की फिलॉसफी है कि 'कुछ भी हो सकता है।' मुंबई में संघर्ष के दिनों में मैं चार स्टूडेंट्स के साथ छोटे से घर में रहता था। स्टेशन पर सोया। ट्रेन में धक्के खाए। बचपन में जीभ में पत्थर लगने से तोतला हो गया। लेकिन कुछ महीनों की मेहनत के बाद सही बोलने लगा। 'हम आपके हैं कौन' की शूटिंग के दौरान मुझे फेशियल पैरालिसिस हो गया लेकिन मैं शूटिंग पर जाता रहा। हिंदी मीडियम में पढ़ा-लिखा था। लेकिन अब मैं विदेशों में इंग्लिश में मोटिवेशनल लेक्चर देता हूं।


क्या आप 'होप' बेचते हैं?

उम्मीदें लाइफ को बांध कर रखती हैं। जिस दिन आप उम्मीद करना बंद कर देंगे उस दिन आप जीना बंद कर देंगे। मुझे लगता है कि आशावादी होना आसान है और मुश्किल भी है। आसान इसलिए क्योंकि यह जिंदगी चलाने का आसान तरीका है। उम्मीदें जिंदा होती हैं तो आप दुखी कम होते हैं। मैं जिस भी इंसान से मिलता हूं उसे उम्मीद ही देता हूं। जब मेरे पास काम भी नहीं था, उस समय भी मैंने उम्मीद का दामन नहीं छोड़ा। मैं समझता हूं कि आप किसी को उम्मीद देते हैं और दुख नहीं देते हैं तो वह आपको ज्यादा दिन तक याद रखता है।

आपके नाटक के भी बहुत चर्चे हैं। क्या हाउसफुल रहा है आपका नाटक?

हमारा नाटक 'मेरा वो मतलब नहीं था' बहुत कामयाब रहा है । इसे राकेश बेदी ने लिखा है। दिल्ली के चांदनी चौक की कहानी है इसमें। चांदनी चौक का एक लड़का और लड़की आपस में प्यार करते हैं और शादी करना चाहते हैं। लेकिन किसी कारण उनकी शादी नहीं हो पाती है। जब पैतीस साल बाद वह महिला हमेशा के लिए विदेश जा रही होती हैं तो चांदनी चौक आकर उस आदमी से मिलना चाहती हैं। और जानना चाहती हैं कि आखिर ऐसा क्या हुआ था कि उनकी शादी नहीं हुई। वे देश छोडऩे से पहले अपने दिल का बोझ हल्का करना चाहती है। इन रिश्तों पर कहानी है। पहली मोहब्बत और मां-बाप के रिलेशन का बयान इसमें है। चूंकि इसमें ह्यूमर और टियर्स दोनों है इसलिए यह लोगों को काफी पसंद आ रहा है। मैं इसकी कामयाबी से बहुत खुश हूं। आश्चर्यजनक तरीके से इसे नाट्यप्रेमियों का बहुत अच्छा रिस्पॉन्स मिला है। कलकत्ता में दस दिन पहले हाउसफुल हो गया था। चेन्नई में आठ दिन पहले। अमेरिका में हुए कई शोज में भी हाउसफुल रहा।


फिल्में, टीवी और नाटक। इतना कुछ कैसे कर पाते हैं आप?

मुझे लगता है कि बिजी आदमी के पास बहुत टाइम होता है। जो बिजी नहीं होता है वही कहता है कि मेरे पास टाइम नहीं है। छह घंटे ही तो सोना होता है बाकी समय तो काम ही करते हैं। और फिर आपको जो चीज पसंद आए उसे करने में आदमी थकता नहीं। हां, जो चीज पसंद न हो, वह थका सकती है।

आपने अपनी किताब 'द बेस्ट थिंग अबाउट यू इज यू' में खुद की ताकत को पहचानने की बात कही है। इसको लेकर आपकी सोच क्या है?

मैं मानता हूं कि जो आपकी सबसे अच्छी चीज है वह आपके भीतर है। जो आपकी स्ट्रेंथ है उसे आप को खुद ही पाना पढ़ता है। आप खुद के सहारे ही आगे बढ़ सकते हैं। आपको अपनी ताकत खुद से ही लेनी पड़ेगी। खुद को ही ताकतवर बनाना होगा। मुझे लगता है कि सबसे आसान और सबसे मुश्किल काम अपने व्यक्तित्व के अनुरूप होना है। अगर अपने व्यक्तित्व को अपने हिसाब से जीते हैं तो अपनी पर्सनैलिटी बनाए रखना आसान हो जाता है और अगर मैं कोशिश करूंगा कुछ और बनने की तो न तो मैं खुद की तरह ही रह पाऊंगा और न ही किसी और की तरह बन पाऊंगा। मेरे विचार से पर्सनैलिटी का मतलब होता है कि आप जो भी हैं उसी में खुश महसूस करें। और फिर आजकल मार्केटिंग की कोशिशें और अखबारों व चैनलों पर चलने वाली खबरों में आपको डराया जाता है कि आप एक ऐसे समाज में रह रहे हैं जहां चोरी होती है, बलात्कार होते हैं। आजकल अखबार यही बेचते हैं। यह सच्चाई तो है लेकिन जब मैं छोटा था तो ऐसी खबरें तेरहवें और चौदहवें पेज पर होती थीं, लेकिन अब ये फ्रंट पेज पर होती हैं। ब्रेकिंग न्यूज कभी भी कुछ अच्छा नहीं बताता है। अपनी किताब में मैंने अपनी इसी सोच को दर्शाया है।

आपने अपनी पहली फिल्म 'सारांश' में झुर्रियो वाले बूढ़े व्यक्ति की भूमिका को क्यों स्वीकारा, जबकि आप उस समय युवा थे?

मुझे भूख थी कुछ कर गुजरने की, और वह मेरा आखिरी चांस था कुछ करके दिखाने का। जितनी मेरी भूख थी और जितनी मेरी ह्यूमिलिएशन थी, वह सब मैंने उस किरदार में डाल दी। मेरे लिए वह कमाल का रोल था। चूंकि मैं थियेटर से हूं इसलिए मुझे इस बात से कोई परेशानी नहीं थी कि मैं अट्ठाइस साल का हूं और पैंसठ साल के बुड्ढे का रोल कैसे करूंगा? मैं अगर इतने साल बाद आपसे बात कर रहा हूं तो इसीलिए कि मेरी पहली फिल्म 'सारांश' है। मुझे सशक्त बनाने में उसका बहुत बड़ा हाथ है।

आज के युवाओं को सफलता के लिए क्या मंत्र देना चाहेंगे?

देखिए, हार्ड वर्क और ऑनेस्टी का कोई विकल्प नहीं है। अगर आपको ऐसी सफलता चाहिए, जो बीस-पच्चीस, तीस-चालीस साल तक चले तो फिर हार्ड वर्क ही करना पड़ेगा और सच्चाई से ही जीना पड़ेगा। कहने में ये बातें सिद्धांतवादी जरूर लगती हैं लेकिन कड़ी मेहनत और सच्चाई का वाकई में कोई विकल्प नहीं है। सभी की जिंदगी में संघर्ष और मुश्किलें होती हैं। अपनी मेहनत और ईमानदारी से हम उस दौर से निकलते हैं और अपनी मंजिल को पाते हैं। हमें इस यात्रा को याद रखना बहुत जरूरी है।

आजाद भारत के यूथ में आप ऐसी कौनसी खासियत देखते हैंं जो आपको प्रभावित करती है?

आज के स्वतंत्र भारत की जो युवा पीढ़ी है वह हमारी पीढ़ी से ज्यादा ईमानदार है। हमारी पीढ़ी या हमसे पहले की पीढ़ी पोस्ट इंडिपेंडेंस और प्री-इंडिपेंडेंस ब्लूज की शिकार रही। हमारे पिताजी और दादाजी ने हमें डिप्लोमेसी सिखाई थी। वे कहते थे कि बेटे मन की बात किसी से मत बोला करो। लेकिन जो आज का यूथ है वह आजाद भारत में पैदा हुआ है और उसे इस तरह की कोई परेशानी नहीं हे। युवाओं के रवैये से हमें कभी-कभी ऐसा लगता है कि वे बदतमीजी से बात कर रहे हैं लेकिन वे बदतमीज नहीं है बल्कि दोटूक बात करते हैं। इसलिए मुझे लगता है कि हमारे देश का भविष्य उज्जवल है और आज की युवा पीढ़ी हमारे देश को और बेहतर बनाएगी।

ईमानदार तो है यूथ, और उसमें कुछ कर गुजरने की चाहत भी है लेकिन उसमें जो बेचैनी है उसे आप किस तरह से देखते हैं?

बेचैनी तो क्रिएटिव होती है। मैं बेचैन था तभी बॉलीवुड में इतने साल गुजार पाया हूं। अगर चैन से रहता तो फिर चैन ही करता। बेचैनी अच्छी है लेकिन जल्दी सक्सेस पाने के लिए शॉर्टकट लेने की कोशिश न करें तो अच्छा है। लाइफ में शॉर्टकट शॉर्ट टर्म के लिए ही होते हैं।

किरण जी साडिय़ों और ज्यूलरी की काफी शौकीन हैं। इन्हें खरीदने में आप कितनी मदद करते हैं उनकी?

वे खुद अच्छा कमा लेती हैं और खुद ही खरीद लेती हैं। मैं बहुत पहले उनके लिए कुछ लेकर आया था जो उन्हें पसंद नहीं आया। उन्होंने कहा कि जिंदगी में आगे से मेरे लिए कुछ मत खरीदना। बस मुझे पैसे दे देना।


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