जिनकी किक में है दम
(सपनों की उड़ान भर रही हैं महिला फुटबॉल खिलाड़ी )
यशा माथुर
फुटबॉल जैसे खेल में लड़कियों की नुमांइदगी कम ही दिखाई देती है लेकिन अब बहुत तेजी से महिलाएं इस खेल में आ रही हैं क्योंकि इसमें न केवल नाम व शोहरत मिल रही है बल्कि करियर बनाने के अवसर भी तेजी से बढ़ रहे हैं। इस साल आयोजित इंडियन वीमंस लीग ने तो फुटबॉल अपनाने वाली महिलाओं के लिए अवसर खोल दिए हैं । यह महिला फुटबॉलर्स ढेरों कठिनाईयों का सामना कर के सामने आईं हैं और अब इनसे प्रेरणा लेने वाली और मैदान में अपने सपनों की उड़ान भरने वाली लड़कियां कम नहीं होंगी।ओ बेमबेम देवी पहली भारतीय फुटबॉलर हैं जो विदेशी क्लब के लिए खेली हैं। वे दो दशक से अटेकिंग मिडफील्डर हैं। सात बार इंडिया टीम की कैप्टन रही हैं और जीत भी हासिल की है। 15 साल की उम्र में ही उन्होंने तय कर लिया था कि वे फुटबॉल खेलेंगी। इंफाल, मणिपुर से हैं बेमबेम देवी। शुरू में लड़कों के साथ खेलना शुरू किया। लड़कियां कैसे खेलती हैं उन्हें पता नहीं था। घर के पास के एक लोकल क्लब के जरिए वे पहली बार स्टेट सब-जूनियर के लिए खेलीं। उनके पापा मुझे पढ़ाई में ध्यान देने के लिए कहते थे लेकिन उनकी रुचि फुटबॉल में थी। जब 1995 में भारत का प्रतिनिधित्व किया पिता ने कहा कि खेलो लेकिन पढ़ाई पर भी ध्यान दो।
फुटबॉल में पहले और अब की स्थिति के अंतर को बताते हुए वे कहती हैं, 'पहले इतनी सुविधाएं नहीं थी। अब तो नेशनल गेम्स में आने के बाद जॉब मिलती है। इसलिए लड़कियां हर खेल को खेलने की कोशिश करती हैं। इंडियन वीमंस लीग आने से लड़कियां फुटबॉल में अपना करियर बना सकती है। पैसा देकर खिलाडिय़ों को खरीदा जाता है। प्रोफेशनल खेल आ गया। अभी पहली बार हुआ है आने वाले सालों में कई टीमें बनेंगी। मैं लड़कियों से कहना चाहती हूं कि अगर फुटबॉल खेलें तो ऊपर तक जाने की कोशिश करें। अपने आप तैयार होना है। अनुशासन में रहना है। कड़ी मेहनत जरूरी है। '
लड़कों से लड़ी नांगोम बाला देवी, तैयार हैं विश्व कप के लिए
नांगोम बाला देवी इस समय देश की राष्ट्रीय फुटबॉल टीम की कप्तान हैं। वे मणिपुर के बिष्णुपुर जिले की रहने वाली हैं। जब वे दस साल की थीं तो मणिपुर के एक लोकल क्लब में उन्होंने लड़कों को फुटबॉल खेलते देखा। उस समय कोई लड़की फुटबॉल नहीं खेल रही थी। लेकिन उन्हें लगा कि वे भी इनकी तरह फुटबॉल खेलें। फिर क्या था उन्होंने क्लब बनाया और अपनी टीम बनाई।
बताती हैं नांगोम बाला देवी, 'पहले कुछ पता नहीं था। जब लड़कों के साथ फुटबॉल खेलने जाती तो कुछ लड़के बोलते कि लड़की को नहीं खिलाएंगे और कुछ कहते कि ये अच्छा खेलती है इसको खिलाएंगे। उनके साथ लड़-लड़कर खेलकर मैं आगे बढ़ी। एक साल में ही मेरा अंडर 19 में सलेक्शन हो गया। इसके बाद में स्टेट टीम में आ गई। जब स्टेट टीम में जीती तब मेरी उम्र कम थी। अब 2014 से नेशनल टीम की कैप्टन हूं। विश्व कप की तैयारी है। फिटनेस अच्छी है। अभी कुछ साल और खेल सकती हूं। जब तक फिटनेस है तब तक खेलूंगी। '
फुटबॉल खेलने के लिए पापा से जिद की सस्मिता मलिक ने
उड़ीसा से हैं सस्मिता मलिक लेकिन बिहार में रहती हैं। भारतीय टीम में लेफ्ट विंगर हैं। एक बार जब उनके गांव में ऑल इंडिया टृर्नामेंट चल रहा था तो वे पापा के साथ उसे देखने गईं और पापा से जिद करने लगीं कि मैं भी ऐसे ही खेलूंगी। उनकी रुचि को देखकर पापा ने सपोर्ट किया और 2001 से सस्मिता ने फुटबॉल खेलना शुरू किया। उनके चाचा को लगता था कि लड़की है फुटबॉल नहीं खेले लेकिन बाद में उन्होंने बहुत सपोर्ट किया।
सस्मिता को उड़ीसा से दो बार एक्लव्य पुरस्कार मिल चुका है। इस बार 'प्लेयर ऑफ द ईयर' मिला है। वे कहती हैं, 'फुटबॉल को बहुत आगे ले कर जाना है। सबको दिखाना है कि भारत में भी महिला खिलाड़ी सफल हैं। पैरेंट्स को कहना चाहूंगी कि अगर बेटी फुटबॉल खेलना चाहे तो उसे दिल से सपोर्ट करें। उनका सपोर्ट बहुत मायने रखता है।'
पीटीआई सर लड़कों को फुटबॉल खिलाते तो संजू प्रधान भी चली जातीं खेलने
खेलों का जिक्र हो और हरियाणा का नाम न आए ऐसा हो नहीं सकता। भिवानी जिले के अलखपुरा गांव की संजू प्रधान ने हाल ही में सम्पन्न इंडियन वीमंस लीग में काफी अच्छा प्रदर्शन किया है। स्ट्राइकर पोजीशन पर खेलने वाली संजू 'इमरजिंग प्लेयर ऑफ द ईयर' बनी हैं। मात्र 19 वर्ष की हैं और पांच बार नेशनल टीम में देश के लिए खेल चुकी हैं।
अपने बारे में बताते हुए वे कहती हैं, 'हमारे पीटीआई सर लड़कों को फुटबॉल खिलाते थे तो मै भी चली जाती। फिर उन्होंने हम लड़कियों को भी फुटबॉल खिलाना शुरू कर दिया। वे हमें फिजिकल करवाते और हम खुद ही खेलते। अभी भी गांव में ही ट्रेनिंग करते हैं कहीं नहीं जाते। मां अनपढ़ है। उनको बता देते हैंं कि खेल रहे हैं, जीत गए हैं। पापा खेती करते हैं। मिडिल क्लास हैं। मेरी जॉब से घरवालों को सपोर्ट मिलेगा।' संजू ने हाल ही में हाजीपुर बिहार में रेलवे में जूनियर क्लर्क ज्वाइन किया है। सेकंड ईयर में पढ़ रही हैं और आगे भी फुटबॉल ही खेलने की इच्छा है उनकी।
डालिमा छिब्बर को लगता है कि पैसा और पॉपुलेरिटी, दोनों है अब फुटबॉल में
दिल्ली की डालिमा छिब्बर अभी 19 साल की हैं। उनके माता-पिता दोनों खिलाड़ी हैं। पिता ही उनके कोच हैं। पहले उन्हें अंडर 14 टीम में मौका मिला। बाद में अंडर 19 टीम की कप्तान बनीं। पिछले साल साउथ एशियन गेम में उन्हें नेशनल टीम में खेलने का अवसर मिल गया है और सीनियर्स के साथ उनकी यात्रा शुरू हो गई है।
फुटबॉल की शुरुआत के बारे में बताती हुई वे कहती हैं, 'मैं पापा के साथ ग्राउंड पर जाती थी। लड़कों को खेलते देखकर उनके साथ ही फुटबॉल खेलना शुरू किया है। फुटबॉल खेलने वाली लड़कियां थी ही नहीं। अब फुटबॉल में करियर अच्छा है। आगे काफी अच्छे अवसर आने वाले हैं। पैसा और लोकप्रियता दोनों मिलेगी।'
पांडिचेरी की सुमित्रा कामराज ने भी तेरह साल में ही फुटबॉल खेलना शुरू कर दिया था। उनके गांव में भी केवल लड़के ही फुटबॉल खेलते थे। लेकिन कोच ने लड़कियों को भी लिया और सिखाया।
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