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समय की नब्ज को पहचाना है आज के सिनेमा ने 

फिल्मी कहानियों ने बदली है करवट

यशा माथुर


खूबसूरत वादियों में रोमांटिक गाना गाते, स्विट्जरलैंड में एक-दूसरे पर बर्फ फेंकते हीरो-हीरोइन, बचपन में बिछुड़े और फिल्म के आखिर में मिलते भाई, विलेन से बदला लेते हीरो अब फिल्मों से गायब हो गए हैं। अब एक नया सिनेमा गढ़ा जा रहा है जिसमें हीरो अपनी पत्नी को टॉयलेट उपलब्ध कराने के लिए समाज से लड़ रहा है, हीरोइन अपनी जिंदगी अपने तरीके से जीने के लिए स्वतंत्र है। लिंग समानता की बात हो रही है। समाज में अत्याचार के खिलाफ आवाज बुलंद की जा रही है। छोटी जगहों के विषय प्रमुख बन कर सिनेमा में उभर रहे हैं। यह नया सिनेमा वैविध्यता से परिपूर्ण है और बॉलीवुड की हस्तियां मान रही हैं कि हमारे एक्टिंग करने का समय तो अब आया है ...


समय की नब्ज को पहचाना है आज के सिनेमा ने। वे कहानियां पर्दे पर आ रही हैं जिनमें जीवतंता है, विविधता है। विषय ऐसे जो आम आदमी के दिल को छू कर निकल जाते हैं। आज के सिनेकारों को विश्व सिनेमा का एक्सपोजर है। वे उसे गढऩे के लिए नए प्रयोग करते हैं। ट्रीटमेंट को लेकर खास तौर पर सतर्क रहते हैं।

अब मिला मौका एक्टिंग का
जब दौर था फॉर्मूला फिल्मों का तो एक्शन या लव-स्टोरी के दम पर फिल्में हिट हो जाती थीं और दर्शक भी अपने चहेते हीरो को पर्दे पर विलेन को पीटते और हीरोईन को बचाते देख कर उत्साहित हो जाते थे। एक ही फॉर्मूले पर बनी फिल्में हिट होतीं तो एक्टर्स को ज्यादा कुछ करने का मौका ही नहीं मिलता था।
 रोमांटिक हीरो का ठप्पा लग जाने वाले हीरो ऋषि कपूर के साथ भी ऐसा ही हुआ। वे कहते हैं, 'मुझे बहुत कम मौके मिले हैं एक्टिंग के। जर्सी पहन कर स्विट्जरलैंड में गाना गाते ही फिल्में की मैने। मौका तो मुझे अब मिला है एक्टिंग करने का। 'दो दूनी चार', 'लक बाय चांस', 'अग्निपथ', 'कपूर एंड संस', जैसी फिल्मों के लिए मुझे काफी पुरस्कार मिले हैं। मुझे खुशी है कि मुझ जैसे हीरो को ध्यान में रख कर चरित्र अभिनेता के किरदार लिखे जा रहे हैं। आज कंटेंट बहुत अच्छा है। 'नीरजा', 'तलवार', 'पीकू', 'हिंदी मीडियम', 'पिंक' जैसी फिल्मों ने एक अलग जोनर खड़ा किया है।'

डिजिटल माध्यम और शॉर्ट फिल्में
आज पॉजिटिव टाइम है। अलग-अलग कहानियां कही जा रही हैं। डिजिटल माध्यम से भी आसान हो गया है। हर फिल्म बड़े पर्दे पर ही रिलीज हो ऐसा जरूरी नहीं है। हाल ही में दिल्ली में संपन्न हुए जागरण फिल्म फेस्टिवल में भी लघु फिल्मों का एक सेक्शन था जिसमें 'चटनी' और 'काजल' सहित अनेक भाषाओं में ढेरों लघु फिल्में दिखाई गईं। दर्शकों ने इनमें काफी रुचि ली। 
ऑफबीट फिल्में करने के लिए मशहूर तनिष्ठा चटर्जी भी आज मिल रहे मौकों को क्रिएटिविटी का समय कहती हैं। बताती हैं, 'डिजिटल प्लेटफॉर्म्स पर लघु फिल्में आ रही हैं। जिनके माध्यम से अच्छी कहानियां कही जा रही हैं। लोगों को सकारात्मक संदेश दिए जा रहे हैं। लोगों को शिक्षित किया जा रहा है। यह कंटेंट का महत्वपूर्ण दौर है। कहानी कहने वालों और क्रिएटिव काम करने वालों का समय है। हम सब इस डिजिटल मूवमेंट का पार्ट बन रहे हैं।' हास्य अभिनेता राकेश बेदी भी सोशल मीडिया और शॉर्ट फिल्म्स को अहम मानते हुए कहते हैं, 'आज आप अपने दिल की बात कह सकते हैं। सोशल मीडिया आपके पास है। दिल की बात कहने के लिए आपको ढाई घंटे की फिल्म बनाने की जरूरत नहीं है। दस मिनट में आप अपनी बात कह कर पूरी दुनिया में स्टार बन सकते हैं और फिल्ममेकर व थिंकर के रूप में स्थापित हो सकते हैं।'

बदल गया है दर्शक भी
फिल्म में फाइटिंग सीन पर तालियां बजाने वाले दर्शक अब बदल गए हैं। उन्हें कुछ अलग चाहिए, ऐसा जो उसे झकझोर दे। 
'अनारकली ऑफ आरा' जैसी फिल्म के डायरेक्टर अविनाश दास कहते हैं, 'दर्शकों को आज पहली बार दुनिया नहीं दिखा रहे हैं हम। सूचनाओं के मामले में वे पहले से ही समृद्ध हैं। वे चाहते हैं कि उनके शहर की कहानी वास्तविक रूप में सामने आए। वे अपनी दुनिया देखना चाहते हैं। आज कंटेंट के आगे स्टारडम का भ्रम भी टूट रहा है। सलमान खान की 'ट्यूबलाइट' को इसलिए खारिज कर दिया गया कि दर्शकों को वह सलमान खान के पहले के काम के बराबर काम नहीं लगी। उन्होंने स्टारडम को वोट नहीं किया। किस फिल्म को प्रोमोट करना है किसको नहीं, जनता जान गई है।' ऋषि कपूर भी कहते हैं, 'सिनेमा देखने का दर्शक बदल गया है। जो 400 रुपये खर्च कर के मल्टीप्लेक्स में सिनेमा देखने आया है उसकी अलग ही सोच है। हमारे समय में ऐसा नहीं था। बदलाव अच्छे के लिए हुआ है। दर्शकों को अच्छी फिल्में मिल रही हैं। हिट कॉमर्शियल भी बन रही हैं।'

छोटी फिल्मों का संघर्ष है अभी
विनय पाठक की इमेज हास्य अभिनेता की बन गई है लेकिन इस दौर में वे जल्दी ही नए यादगार किरदार करना चाहते हैं। हालांकि उन्हें लगता है कि अभी भी छोटी फिल्मों का संघर्ष कम नहीं हुआ है। कहते हैंं, 'अभी भी बड़ी फिल्मों की रिलीज में 500 शोज उनके नाम पर होते हैं। छोटी फिल्मों का संघर्ष है। उन्हें शोज कम मिलते हैं। जिनमें कोई अपील होती है वे महीने भर चल जाती हैं और इन्हें हिट कह दिया जाता है क्योंकि इन्होंने अपने छोटी लागत से ज्यादा कमाई कर ली होती है। नहीं तो छोटी फिल्में खांस कर जल्दी ही दम तोड़ देती है। बड़ी फिल्मों का खांसना कुछ ज्यादा देर तक होता है। वैसे अब कहानी प्रधान फिल्में ज्यादा बन रही हैं तो कलाकारों का सम्मान भी बढ़ गया है।' विनय पाठक जागरण फिल्म फेस्टिवल को छोटे शहरों में ले जाने और वहां के दर्शक को अच्छी फिल्में दिखाने की सराहना करते हैं।

बाइट्स

विश्व सिनेमा से है प्रतियोगिता


हमारे समय में हर एक्टर के पास चार-चार फिल्में लॉस्ट एंड फाउंड की होती थी। पहली रील में बिछड़े और आखिर में विलेन को मारकर वे मिल जाते थे। आज के दर्शक उसे रिजेक्ट कर देंगे। आज प्रतियोगिता इतनी है, इंटरनेट है, टीवी है, सूचनाएं हैं। आपकी विश्व सिनेमा से प्रतियोगिता है। अगर आप कॉम्पिटेंट हैं तो ही चल सकेंगे।
ऋषि कपूर
चरित्र अभिनेता



कमर्शियल फिल्मों में आर्ट


आज आर्ट सिनेमा और कमर्शियल सिनेमा के बीच की लाइन धुंधली हो गई है। आप दंगल को क्या कहेंगे? यह कमर्शियल फिल्म है लेकिन कंटेंट बहुत अच्छा है। कमर्शियल फिल्मों में आर्ट दिखाई दे रही है। अर्थपूर्ण सिनेमा की तादाद बढ़ गई है। सबसे बेहतरीन दौर है यह। कभी इतना अच्छा नहीं रहा। आप किसी भी एंगल से देखें यह बेस्ट टाइम है।
सारिका
सिनेतारिका


जमाने से मेल खाता कंटेंट


आज इश्यूबेस्ड फिल्मों का दौर है। पंद्रह साल पहले तक तीन तरह की फिल्में बनती थीं जिनमें प्रेम कहानी, लॉस्ट एंड फाउंड और बदला लेने की कहानी होती थी। फॉर्मूला से बंधी फिल्में थीं। कॉमेडी फिल्म तो एक दशक में कोई एक ही बनी होगी। फॉर्मूला के जमाने में हास्य तो बहुत दूर चला गया था। आज अगर आपकी फिल्म में दम है तो वह जरूर चलेगी। कंप्यूटर शॉट जितनी मर्जी ले लें लेकिन जब तक कंटेंट ताजा और जमाने से तालमेल खाता नहीं होगा तब तक लोग उसे स्वीकार नहीं करेंगे।
राकेश बेदी
हास्य अभिनेता


हम एक्टर्स का दौर है यह


यह कहानियों का दौर है। अच्छे डायरेक्शन का दौर है। चरित्र अभिनय का दौर है। बड़े सितारे भी चरित्र अभिनय कर रहे हैं। हां, मैं कहती हूं कि यह हम एक्टर्स का दौर है। हम सब मिल कर एक अलग तरह का सिनेमा कर रहे हैं। दर्शकों का भी शुक्रिया अदा करना चाहिए जो नई चीजों को लेकर बहुत स्वीकार्य है। अब बहुत कुछ है करने के लिए। हम बहुत अच्छे समय में आए हैं।
दिव्या दत्ता
अभिनेत्री


विषय फैला दिए
छोटे शहरों के सिनेकारों ने 

सिनेमा हमेशा से लोकतांत्रिक मीडियम रहा है। यहां हमेशा शहर के लोग आए और मुंबई के मेनस्ट्रीम फॉर्मूला को फॉलो करते रहे। लेकिन पिछले दो दशक से अनुराग कश्यप, दिवाकर बनर्जी, तिग्मांशु धूलिया, सुभाष कपूर, आनंद एल राय जैसे लोग छोटे शहरों से निकलकर फिल्में बना रहे हैं। उनके अनुभवों की दुनिया बड़ी है। इसलिए सिनेमा का विषय भी फैला है। बड़े शहरों से देश की जड़ों की ओर गया है सिनेमा। सिनेमा ने पूरे भारत को जगह दे दी है तो पूरे भारत का सिनेमा बन रहा है। अच्छी बात यह है कि इन सिनेकारों ने वर्ल्ड सिनेमा को एक्सप्लोर किया है। इन्हें पता है कि अच्छा और बुरा सिनेमा क्या है। इन्होंने जब अपने विषय पर कहानी कहनी शुरू की तो अपने ट्रीटमेंट को लेकर काफी सजग रहे। इस दौर का स्वागत किया जाना चाहिए और इसे निरंतर चलते रहना चाहिए।
अविनाश दास
राइटर, डायरेक्टर

आज की सच्चाई पर बन रही हैं फिल्में


एंटरटेनमेंट में एक बहुत ही डेमोक्रटिक सिचुएशन पैदा हो गई है । आज हर कस्बे में इंटरनेट है। लोग अपने तरह के कंटेंट की तरफ आकर्षित हो रहे हैं और उसे ढूंढ़ पा रहे हैं। इंटरनेट ने सभी को सब चीजें उपलब्ध करा दी हैं। आपको जो चीज पसंद आ रही है उसे आप देख सकते हैं। हां, सामाजिक मुद्दों पर फिल्में हमेशा बनी हैं फिल्में समाज के विषयों पर बनती रही हैं। आज लिंगभेद, यौन उत्पीडऩ और बलात्कार पर फिल्में बन रही हैं क्योंकि यह आज की सच्चाई है।
टिस्का चोपड़ा
एक्टर

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