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'महिला' शब्द से ही मिले आजादी 

यशा माथुर

महिला डायरेक्टर ने बनाई है यह फिल्म। महिला खिलाड़ी खेल रही हैं शानदार।महिला आर्किटेक्ट कर रही हैं अद्वितीय काम। महिला वैज्ञानिकों ने फहराया परचम। आखिर क्यों कॉम्पिटेंट पेशेवर महिलाओं के काम के आगे 'महिला' लगा कर उनको डिग्रेड किया जाता है? यही कहती हैं आज की पेशेवर महिलाएं। वे कहती हैं हम उसी स्तर का काम करते हैं, पुरुषों के बराबर या उनसे ज्यादा मेहनत कर अपने काम को अंजाम देते हैं। धूप में खड़े रहते हैं, दम, खम और दिमाग लगाते हैं फिर हमें अव्वल दर्जे का पेशेवर क्यों नहीं समझा जाता है? क्यों नहीं मिलती हमें आजादी 'महिला' शब्द से?


महिलाएं अगर कुछ भी अलग करना चाहती हैं तो वे खुद के दम पर खड़ी होती हैं। जो भी चुनौतियां उन्हें महसूस होती हैं वे उसका सामना करती हैं और अपनी दृढ़ इच्छाशक्ति की बदौलत सफलता हासिल करती हैं। ऐसे में उनके काम और पेशे के आगे 'महिला' लगा देना क्या उन्हें कम साबित करना नहीं है? आज जबकिमहिलाओं ने चुनौतीपूर्ण पेशों में खुद को साबित कर दिया है फिर भी उनकामहिला होना उनकी पेशेवर पहचान पर हावी हो रहा है।

जब मैं जेंडर न्यूट्रल हूं तो ...
एक महिला तभी सफल आर्किटेक्ट बन सकती है जब वह क्वालिफाइड हो और तकनीकी रूप से मजबूत हो। फिर उन्हें वुमन अार्किटेक्ट की बजाय केवल आर्किटेक्ट ही क्यों न कहा जाए? उनके प्रोफेशन के आगे फीमेल या वुमन का विशेषण लगाना जरूरी है क्या ? आर्किटेक्ट सोनाली भगवती अपने काम में परफेक्ट हैं तो फिर वे क्यों वुमन आर्किटेक्ट कहलाना चाहेंगी? जब वे कहती हैं कि मैं आर्किटेक्ट हूं। जेंडर न्यूट्रल हूं। किससे बात कर रही हूं? कहां पर हूं? किस समय पर हूं? मेरे लिए कभी मैटर नहीं किया। हम प्रोफेशनल हैं और हमें प्रोफेशनल तरीके से ही काम करना होगा। ऐसे में उन्‍हें फीमेल आर्किटेक्ट कहना और कमतर बताना कितना सही होगा? आर्किटेक्ट व इंटीरियर डिजाइनर कृपा जुबिन को भी लगता है कि खुद के दम पर खड़ा होना होता है महिलाओं को। चुनौतियां कहां नहीं हैं? चुनौतियां ही प्रेरणा बन जाती हैं कृपा के लिए और वे उन्हें संभव करके ही मानती हैं।'

'फीमेल' कह कर कम क्यों आंका जाए?
हाल ही में शॉर्ट फिल्म 'काजल' बनाने वाली डायरेक्टर पाखी टायरवाला ने भी एक बातचीत में इस बात पर आपत्ति जताई और कहा कि मुझे सिर्फ फिल्म डायरेक्टर कहें, फीमेल या वुमन डायरेक्टर नहीं। मैंने भी उतनी ही मेहनत से फिल्म बनाई है। उनका मानना था कि फिल्म डायरेक्टर चाहे महिला हो या पुरुष, उसे खुद को पूरी तरह से फिल्म के प्रति समर्पित करना पड़ता है। दिलो-दिमाग में फिल्म ही छाई होती है फिर 'फीमेल' डायरेक्टर कह कर किसी महिला के काम को कम आंकने का प्रयास क्यों हो? जहां तक अदाकारी का सवाल है तो अभिनेता और अभिनेत्री का भेद 'एक्टर' शब्द में खत्म होता नजर आता है फिर भी शिकायत तो है ही। एक्टर महिका शर्मा कहती हैं, 'जब दोनों की एक जैसी परफॉर्मेंस है तो फिर काम के साथ जेंडर शो करना कहां तक जायज है। हम अपना सर्वश्रेष्ठ देते हैं लेकिन हमारी उम्र बढऩे पर हमें आदर नहीं बल्कि इंडस्ट्री के बाहर का रास्ता मिलता है। हमारी उम्र की सीमाएं छोटी कर दी गई हैं। इस असमानता का अंत होना ही चाहिए।'

हम हैं इफेक्टिव टीम प्लेयर 
हम महिलाएं भी खुद को महिला मानकर अपने आपको कमतर समझ लेती हैं। अगर हमने खुद ही समझ लिया कि हम महिला हैं तो पचास प्रतिशत तो खुद को वहीं खत्म कर लेती हैं हम। हममें बहुत शक्ति है और हमें स्वयं को कभी भी कम नहीं समझना है। यूएन में काम कर रही निष्ठा सत्यम ऐसा ही मानती हैं । वे कहती हैं, 'महिलाएं हर समस्या को पुरुषों के मुकाबले ज्यादा तरीकों से देखती हैं। उनका फैसला सभी को ध्यान में रख कर लिया गया होता है। वे उतनी ही इफेक्टिव टीम प्लेयर और ऑर्गेनाइजेशन बिल्डर हैं जितना कि पुरुष। मैं ऐसा नहीं मानती कि औरत कहीं से कमजोर होगी। औरतें काम के साथ समाज के मुद्दों को भी सॉल्व कर सकती हैं और वे सोशल एंटरप्राइज के क्षेत्र में काफी सफल होती हैं। इन्हें कम साबित करना अब बंद करना होगा।'
 
महिला होने के पुछल्ले से मिले आजादी 
किसी भी महिला का काम कैसा है? यह सर्वोपरि है न कि उसका महिला होना या न होना। काम की गुणवत्ता के आधार पर ही व्यक्ति को जज किया जाना चाहिए न कि स्त्री या पुरुष के आधार पर। ऐसा मानती हैं सोशल साइट्स पर एक्टिव रहने वाली फ्रीलांस राइटर अनीता मिश्रा। वे कहती हैं, 'जब सिमोन कहती हैं औरत पैदा नहीं होती है, बनाई जाती है। तब शायद उनका यही आशय रहा होगा कि हम उसेमहिला होने के खांचे में फिट करके आसानी से कमतर साबित कर सकते हैं। मैं मानती हूं कि महिलाओं को महिला होने के पुछल्ले से ही सबसे पहले आजादी मिलनी चाहिए। उन्हें एक व्यक्ति के तौर पर उसी तरह देखा जाना चाहिए जिस तरह पुरुषों को देखा जाता है।' अनीता को लगता है कि जब प्रोफेशन की बात आती है तो काम के आगे महिला जरूर जोड़ दिया जाता है। जबकि ठीक उसी काम के लिए पुरुष के साथ ऐसा उपनाम नहीं जोड़ा जाता। यानी अप्रत्यक्ष रूप से यह बताने की कोशिश होती है कि महिला होने के बाद भी इन्होंने ये काम किया है। 


मैं काबिल हूं

मैं चार्टर्ड अकाउंटेंट हूं, तो हूं। मेल या फीमेल होने से क्या फर्क पड़ता है। मुझे सीए कहा जाना चाहिए ना कि फीमेल सीए। मुझमें उतनी ही काबिलियत और क्षमता है जितनी मेरे किसी पुरुष साथी में। मेरे आगे जैसे ही फीमेल लगाया जाएगा लोग सोचने लगेंगे कि मैं अपने बच्चे और घर में बिजी रहती हूं तो मैं अपना सौ प्रतिशत नहीं दे पाऊंगी। या फिर कहेंगे कि आप फीमेल हैं और इतना अच्छा कर रही हैं। हमें यह सब कहने की जरूरत नहीं है। हम खुद को साबित करने में सक्षम है। हमारी काबिलियत से ही तो यह प्रोफेशन हमारा है, यह डिग्री हमारी है। 
विभा मोहित जैन
चार्टर्ड अकाउंटेंट


लैंगिक शख्सियत के तले न दबे पेशेवर पहचान

साहित्य के जगत में जब लेखिका और कवयित्री से काम न चला तो महिलालेखिका और महिला कवयित्री जैसे संबोधन भी यहां-वहां सुनाई देने लगे। हम हिंदी भाषी जब सम्पादिका, सहायिका, उद्घोषिका जैसे शब्दों का इस्तेमाल करते हैं तब चुक चुके सामंती मूल्यों का सहारा लेकर महिलाओं के श्रम और सहभागिता को हीन साबित कर रहे होते हैं। क्या ही अच्छा हो कि हम इस तरह के शब्दों को अंतिम विदाई देकर उस बेहतर और बराबरीपूर्ण माहौल का आगाज करें, जहां व्यक्ति की पेशेवर पहचान को उसकी लैंगिक शख्सियत के तले न दबाया जाता हो । जहां नए वक्त की स्त्री की नई पेशेवर छवि को तवज्जो मिल सके।

नीलिमा चौहान
प्राध्यापक व लेखक
दिल्ली विश्वविद्यालय 


सफलता एक चुनौती है

मैं बच्चों की डॉक्टर हूं इसलिए मेरे प्रोफेशन में महिला कहलाना अच्छी बात है क्‍योंकि पेशेंट बच्चों की मांएं मुझसे खुलकर बात कर पाती हैं। पेशेंट्स की तरफ से तो मुझे मुश्किल नहीं आती लेकिन आर्थोपेडिक्स और सर्जरी में महिलाएं कम होती है। इनमें अगर कोई महिला आती है तो उसे बिल्कुल अलग अंदाज से देखा जाता है। मरीज भी उसी तरह से आते हैं। उनके लिए सफलता एक चुनौती है। जब मैंने कॉरपोरेट में काम किया था तो बार-बार यह महसूस किया कि मैं महिला हूं। एक असमानता सी महसूस हुई। जब हम अपना काम पूरा कर रहे हैं तो यह असमानता क्यों? 
डाॅ. बेजी जैसन 
बाल रोग विशेषज्ञ

जेंडर का प्रयोग करना नाइंसाफी 

हम जब कुछ कर दिखाते हैं तो ऐसा व्यवहार किया जाता है कि वैसे तो आप इस काबिल नहीं है लेकिन आपने कर दिया। इसलिए 'फीमेल' शब्द का प्रयोग किया जाता है। जबकि इसकी कोई जरूरत नहीं। हम ज्यादा अच्छा कर रहे हैं। जेंडर का प्रयोग करना नाइंसाफी है। 

डा. तनुजा गुप्ता
एसोसिएट प्रोफेसर, जूलॉजी 


पेशेवर महिलाओं के संघर्ष कम नहीं 

चाहे कोई भी फील्ड हो, महिलाओं को महिला कह कर कमतर साबित किया ही जाता है जबकि समाज में पुरुषों को यह उपनाम नहीं मिलता। पेशेवर महिलाओं का संघर्ष कम नहीं होता लेकिन फिर भी उन्हें पुरुषों के मुकाबले कम भुगतान मिलता है। उनके लिए हर काम के दरवाजे भी नहीं खुले हैं। वे ही अपनी जद्दोजहद से आगे आती हैं और खुद को साबित करती हैं।
सोनालिका प्रधान
फैशन डिजाइनर

सम्मान की दरकार है अभी
महिलाओं को हमेशा से उनके पिता और पति के नाम से पहचाना जाता रहा हे। आज उन्होंने अपनी मेहनत से खुद की पहचान बनाई है फिर भी उन्हें समान नहीं समझा जाता। उम्मीद करती हूं कि उन्हें भी कभी इस लोकतांत्रिक व्यवस्था का मजा बराबरी के सम्मान के रूप में मिलेगा।
तान्या शर्मा
एक्टर 


विशेष 
इसरो की वरिष्ठतम वैज्ञानिक अनुराधा टीके इस बात से बिल्कुल इत्तेफाक नहीं रखतीं कि महिला और विज्ञान आपस में मेल नहीं खाते। वे कहती हैं इसरो में लिंग कोई मुद्दा नहीं है और वहां नियुक्ति और प्रमोशन इस पर निर्भर है कि हम क्या जानते हैं और क्या कर सकते हैं। अनुराधा को रोल मॉडल माना जाता है।


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